
इस्लाम धर्म में हर इंसान बराबर होता है, न कोई ऊँच होता है और न नीच। पैगंबर मोहम्मद साहब ने स्पष्ट रूप से कहा था कि इस्लाम में किसी भी तरह का नस्लीय या जातीय भेदभाव नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भारतीय मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था आज भी एक गहरी सच्चाई बनी हुई है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब इस्लाम के मूल सिद्धांतों में बराबरी और भाईचारे की बात है, तब भारतीय मुसलमानों में जाति प्रथा कैसे और क्यों आई।
इस्लाम में समानता का संदेश
पैगंबर मोहम्मद साहब ने अपने आखिरी भाषण में कहा था, “किसी अरबी को अजमी पर, न किसी गोरे को काले पर कोई श्रेष्ठता नहीं है, सिवाय तकवे यानी परहेजगारी के।” यह इस्लाम का वह बुनियादी संदेश है जो सभी इंसानों को एक नजर से देखने की शिक्षा देता है। इस सिद्धांत को मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल के शेर से भी समझा जा सकता है – “एक ही सफ में खड़े हो गए महमूद-ओ-अयाज़।” इस्लाम में नमाज़ के दौरान कोई बादशाह या गुलाम नहीं होता, सब एक ही कतार में खड़े होकर खुदा के सामने सर झुकाते हैं।
फिर मुसलमानों में जाति कैसे आई?
इस्लाम की शुरुआत हजरत आदम से मानी जाती है और पैगंबर मोहम्मद साहब अंतिम नबी हैं। अरब में इस्लाम आने से पहले समाज जनजातियों और कबीलों में बँटा था, जैसे कुरैश, अंसार, बानू खजराज आदि। ये सामाजिक पहचानें थीं, लेकिन ये जाति नहीं थीं। भारत में इस्लाम तब आया जब यहाँ पर वर्ण व्यवस्था अपने चरम पर थी और जाति जन्म से तय होती थी। जब हिंदुओं ने इस्लाम धर्म अपनाया, तो उन्होंने अपने जातिगत पहचान को नहीं छोड़ा। इस प्रकार जाति प्रथा भारतीय मुसलमानों में प्रवेश कर गई।
हिंदू जाति व्यवस्था का प्रभाव
ऋग्वेद में कर्म आधारित जाति व्यवस्था का ज़िक्र है, जबकि मनुस्मृति ने इसे जन्म आधारित बना दिया। इसी ढाँचे में जब हिंदू मुसलमान बने, उन्होंने इस्लाम तो स्वीकार किया, लेकिन जाति को नहीं छोड़ा। इसीलिए मुसलमानों के बीच भी उच्च, मध्य और निम्न जातियाँ बन गईं, जो आज तक जारी हैं। मुस्लिम समाज में यह व्यवस्था इस्लाम के समतावादी मूल्यों के ठीक विपरीत है।
देवबंदी उलेमा और जातिवाद
भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के भीतर भी जातियाँ तीन वर्गों में बँटी हैं – अशराफ (उच्च जातियाँ), अजलाफ (पिछड़ी जातियाँ) और अरजाल (अति पिछड़ी जातियाँ)। 1932 में मौलाना शफी उस्मानी ने मुस्लिम जातियों का वर्णन करते हुए बताया कि सैय्यद, शेख और पठान को उच्च जाति का दर्जा मिला, जबकि अंसारी, कुरैशी, मंसूरी को पिछड़ी जातियों में रखा गया।
मौलाना अशरफ अली थानवी ने ‘बाहिश्ती ज़ेवर’ में लिखा कि सैय्यद और शेख आपस में विवाह कर सकते हैं, लेकिन मुगल या पठान से नहीं। यह भेदभाव न केवल सामाजिक था, बल्कि धार्मिक रूप से भी न्यायोचित ठहराया गया।
मुस्लिम समाज में जाति की स्थिति
मसूद आलम फलाही ने ‘भारत में जाति और मुसलमान’ में बताया कि मुसलमानों में जातिगत संरचना हिंदुओं की जाति व्यवस्था की सटीक नकल है। मुस्लिम समाज में सैय्यद, शेख, पठान जैसे अशराफ वर्ग हैं, जबकि अंसारी, सलमानी, तेली, दर्जी जैसे अजलाफ और धोबी, मेहतर, नट जैसे अरजाल वर्ग हैं। सैय्यद और उच्चवर्गीय मुस्लिम अपने समुदाय में ही शादी करते हैं, जबकि निचली जातियों को सामाजिक रूप से नीचा समझा जाता है।
जाति आधारित भेदभाव आज भी क्यों कायम है?
भारत के मुस्लिम इलाकों में जातिगत आधार पर मोहल्ले, कब्रिस्तान, यहाँ तक कि मस्जिदों में भी भेद नजर आता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे इलाकों में तुर्क और लोधी मुसलमानों के बीच तनाव, अलग-अलग इलाकों में रहना और अलग परंपराएँ इस भेदभाव को दर्शाते हैं। विवाह, रीति-रिवाज और सामाजिक संबंधों में जाति का स्पष्ट असर दिखाई देता है।
जाति आधारित जनगणना और मुसलमान
हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना का एलान हुआ है, जिसमें सभी धर्मों की जातियों को दर्ज किया जाएगा। इससे मुस्लिम समाज की जातिगत स्थिति, सामाजिक और आर्थिक हालात स्पष्ट होंगे। इससे पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों को योजनाओं और आरक्षण का लाभ मिल सकेगा। यह जानकारी नीतियों और कार्यक्रमों को बेहतर बनाने में मददगार होगी।